मैंने हमेशा एक फकीरी ज़िन्दगी जी है, 'क्यूँ' मेरे शब्दकोष में कभी नहीं रहा......यह 'क्यूँ' बस दूर करता है. अमृता मेरी जिंदगी की एक खूबसूरत नज़्म ,--- जिसे मैंने जिया है, जाना है, लिखा है......पर वह अनलिखी रही, तो नज़्म जारी है . आज इस ब्लॉग उत्सव के लिए विशेष रूप से मेरी एक कविता ...!
() इमरोज
!! अपना आप !!
वह अपने अकेलेपन से भी पैदा हुई है
और कविता की जाई भी है
उसका अकेलापन उसकी परवरिश करता है
कविता .. उसको पढ़ती भी है
पढ़ाती भी है
अकेली होकर भी
वो कभी अकेली नहीं हुई
कविता उसके अन्दर भी है
और बाहर भी
कविता उसकी ज़मीन भी है
कविता उसका आसमान भी है
हालात तो रुकावटें बनते ही रहे हैं
पर वह दरिया की तरह
कोई रुकावट कबूल नहीं करती
चुपचाप सब पार कर लेती है
वह सारे फिक्रों में भी बेफिक्र होकर
मनचाहा लिखती आ रही है
मनचाहा जीती जा रही है
ज़िन्दगी कभी दूर खड़ी
कभी पास खड़ी उसको देख-देख
कभी आँखें पोंछती है
और कभी गर्व से भरी नज़र आती है ....
()इमरोज़
( इस कविता का एक-एक शब्द अनमोल है, इसीलिए इस कविता को शब्द-शब्द अनमोल पर पूरे सम्मान के साथ प्रकाशित किया जा रहा है : रवीन्द्र प्रभात )
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lajawaab aur naayab rachna hai sir...
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