आकाश मे अपने पूरे तेज के साथ भगवान भास्कर के उदय होते ही आर्यावर्त के दक्षिण में स्थित सुवर्णमयी लंका अपने पूरे वैभव और सौंदर्य के साथ जगमगा उठी, जैसे दो सुवर्णपिंड एक साथ चमक उठे हों। एक आकाश मे तथा दूसरा जमीं पर। परन्तु भगवान भास्कर की चमक मे जहां एक ताजगी थी, जिवन्तता थी, उमंग थी वहीं लंका मानो उदास थी, अपने स्वामी की परेशानी को लेकर।

कदर्थित रावण पूरी रात अपने महल के उतंग कंगूरों से घिरी छत पर बैचेन घूमता रहा था। परेशान, चिंताग्रस्त, कोई राह नहीं सूझ रही थी। एक ओर प्रतिष्ठा थी, इज्जत थी, नाम था, धाक थी जगत मे। दूसरी ओर इस जीवन के साथ-साथ पूरी राक्षस जाति का विनाश था। कल रात की ही तो बात थी। रोती कलपती उच्छिन्ना शूर्पनखा ने भरे दरबार में प्रवेश किया था। लहुलूहान राजकुमारी को देख चारों ओर सन्नाटा छा गया था। सारे सभासद इस अप्रत्याशित दृश्य को देख कर सकते मे आ खडे हो गये थे। विशाल बाहू रावण ने दौड़ कर अपनी प्यारी बहन को अपनी सशक्त बाहों का सहारा दे अपने कक्ष मे पहुंचाया तथा स्वयं मंदोदरी की सहायता से उसे प्राथमिक चिकित्सा देते हुए अविलम्ब सुषेण वैद्य को हाजिर होने का आदेश दिया। उचित सुश्रुषा के बाद शुर्पणखा ने जो बताया वह चिंता करने के लिये पर्याप्त था।

शुर्पणखा अपने भाईयों की चहेती, प्राणप्रिय, इकलौती बहन थी। बचपन से ही सारे भाई उस पर जान छिड़कते आए थे। उसकी राह मे पलक-पांवडे बिछाये रहते थे। इसी से समय के साथ-साथ वह उद्दंड व उच्छश्रृंखल होती चली गयी थी। विभीषण तो फिर भी यदा-कदा उसे मर्यादा का पाठ पढ़ा देते थे, पर रावण और कुम्भकर्ण तो सदा उसे बालिका मान उसकी जायज-नाजायज इच्छाएं पूरी करने को तत्पर रहते थे। परम प्रतापी भाईयों के स्नेह का संबल पा शुर्पणखा सारी लोक-लाज, मर्यादा को भूल बरसाती नदी की तरह सारे तटबंधों को तोड दुनिया भर मे तहस-नहस मचाती घूमती रहती थी और इसमे उसका साथ देते थे खर और दूषण।

इसी तरह अपने मद मे मदहोश वह मूढमती एक दिन अपने सामने राम और लक्ष्मण को पा उनसे प्रणय निवेदन कर बैठी और उसी का फल था यह अंगविच्छेद। क्रोध से भरी शुर्पणखा ने रावण को हर तरह से उकसाया था अपने अपमान का बदला लेने के लिए, यहां तक की बडे भाई पर व्यंगबाण छोडने से भी नहीं हिचकिचाई थी। यही कारण था रावण की बेचैनी का, रतजगे का और शायद लंका के पराभव का। रावण धीर, गंभीर, बलशाली सम्राट के साथ-साथ विद्वान पंडित तथा भविष्यवेता भी था। उसे साफ नजर आ रहा था अपने देश, राज्य तथा सारे कुल का विनाश। इसीलिये वह उद्विग्न था। राम के अयोध्या छोड़ने से लेकर उनके लंका की तरफ बढ़ने के सारे समाचार उसको मिलते रहते थे पर उसने अपनी प्रजा तथा देश की भलाई के लिए कभी भी आगे बढ़ कर बैर ठानने की कोशिश नहीं की थी। पर अब तो घटनाएँ अपने चरमोत्कर्ष पर थीं। अब यदि वह अपनी बहन के अपमान का बदला नहीं लेता है तो संसार क्या कहेगा ? दिग्विजयी रावण जिससे देवता भी कांपते हैं, जिसकी एक हुंकार से दसों दिशाएँ कम्पायमान हो जाती हैं वह कैसे चुप बैठा रह सकता है? इतिहास क्या कहेगा कि देवताओं को भी त्रासित करने वाला लंकेश्वर अपनी बहन के अपमान, वह भी तुच्छ मानवों द्वारा, पर चुप बैठा रहा? क्या कहेगी राक्षस जाति जो अपने प्रति किसी की टेढ़ी भृकुटी भी सहन नहीं कर सकती वह कैसे इस अपमान को अपने गले उतारेगी? उस पर जिसका भतीजा इन्द्र को पराजित करने वाला हो, कुम्भकर्ण जैसा सैकड़ों हाथीयों के बराबर बलशाली भाई हो वह शूर्पनखा कैसे अपमानित हो शांत रह जायेगी?

रावण का आत्ममंथन जारी था। वह जानता था कि देवता, मनुष्य, सुर, नाग, गंधर्व, विहंगों मे कोई भी ऐसा नहीं है जो मेरे समान बलशाली खर-दूषण से पार भी पा सके। उन्हें साक्षात प्रभू के सिवाय कोई नहीं मार सकता। ये दोनों ऋषीकुमार साधारण मानव नहीं हो सकते। अब यदि देवताओं को भय मुक्त करने वाले नारायण ही मेरे सामने हैं तब तो हर हाल मे, चाहे मेरी जीत हो या हार, मेरा कल्याण ही है और फिर इस तामस शरीर को छोडने का वक्त भी आ गया है। यदि साक्षात प्रभु ही मेरे द्वार आये हैं तो उनके तीक्ष्ण बाणों के आघात से प्राण त्याग मैं भव सागर तर जाऊंगा। प्रभु के प्रण को पूरा करने के लिए मैं उनसे हठपूर्वक शत्रुता मोल लूंगा। पर किस तरह ? जिससे राक्षस जाति की मर्यादा भी रह जाये और मेरा उद्धार भी हो जाए।

सुबह होने लगी थी, आखिर एक निष्कर्ष पर पहुंच रावण ने एक ठंडी सांस ली। छत से अपनी प्रिय लंका को निहारा और आगे की रणनीति पर विचार करता हुआ मारीच से मिलने निकल पड़ा। (Alag sa)
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3 comments:

  1. पता नहीं क्यों पौराणिक या ऐतिहासिक चीजें पढ़ के बड़ी तसल्ली होती है
    आपको धन्यवाद देती हूँ ,ये हमें पढ़ाने के लिए
    कैसी लगी रचना ....ये शब्दों की मोहताज नहीं

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  2. Bada hi aanand aaya padhkar....Bahut bahut aabhar...

    In prernadayi prasangon ko chahe jitni bhi baar padha jaay,purane nahi lagte aur yahan to bade hi sundar dhang se likha gaya hai...

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