आप सजीव और निर्जीव के बारे में भलीभांति जानते होंगे , मगर क्या निर्जीव की  जगह आपने कभी अजीव का प्रयोग किया है ? आपका जवाब होगा नहीं .....! मगर यह जानकर आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इसका प्रयोग हमारे भारतीय संस्कृति में अत्यंत पवित्रता के साथ होता है .

दरअसल जैन धर्म में आत्मा रहित तत्त्व को अजीव कहा जाता है . अजीव को इस प्रकार विभक्त किया गया है -पहला आकाश अथवा अंतरिक्ष , दूसरा धर्म जो गति को संभव बनाता है , तीसरा अधर्म जो शेष क्रियाओं को संभव बनाता है , चौथा पुदगल यानी पदार्थ .....पुदगल में अणु होते हैं , यह अमर है लेकिन इसमें परिवर्तन और विकास हो सकता है . यह स्थूल और शूक्ष्म दोनों ही है अर्थात इसे देखा भी जा सकता है और इन्द्रियों से महसूस भी नहीं किया जा सकता . अदृश्य कर्म पदार्थ , जो आत्मा के साथ जुडा रहता है और इसे भार  प्रदान करता है , सूक्ष्म पुदगल का एक उदाहरण है . पहले तीन प्रकार के अजीव , आत्मा और पदार्थ के अस्तित्व के लिए आवश्यक शर्तें है . ऊपर वर्णित कुछ पारिभाषिक शब्दों का उपयोग बौद्ध दर्शन में भे हुआ है , लेकिन उनका अर्थ  भिन्न है .

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