उगते सूरज के देश जापान से हिंदी प्रेम का पैग़ाम देने वाला कोई भारतीय नहीं, जापानी मूल के मिज़ोकामी हैं, जो ओसाका विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर हैं ....वे पिछले 36 साल से हिंदी के प्रचार प्रसार से जुड़े हैं और इस बात पर अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं कि हिंदी को वो अंतरराष्ट्रीय सम्मान नहीं मिल पाया है जिसकी वो हकदार है.ये पूरे विश्व में रंगमंच के माध्यम से हिंदी को आयामित करने की दिशा में अग्रसर हैं . ये केवल हिंदी बोलते ही नहीं वल्कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को हिंदी लिखने-पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं . हिंदी के प्रचार-प्रसार का इन्होने नायाब तरीका अपना रखा है .उन्होंने इसके लिए कई सदस्यों की एक टीम बनाकर रंगमंच का निर्माण किया है जो जगह-जगह जाकर हिंदी को उत्तरोत्तर सोपान दे रही है .
इन्हें देखकर प्रेरणा मिलती है कि हम हिंदी में औऱ अच्छा काम करे. रंगमंच वास्तव में हिंदी के प्रसार में मददगार हो सकता है .उनकी राय में इसमें बाधक भी खुद भारतीयों की मानसिकता ही है.वो कहते हैं,"एक ही बाधा है-अंग्रेज़ियत...आप अंग्रेज़ी ज़रूर सीखें हम भी सीखते हैं लेकिन साथ साथ हिंदी भी चलती रहे." वे कहते हैं कि किसी सेमिनार में अग्रेज़ी ज़रूरी हो सकती है लेकिन जहां ज़रूरी नहीं वहाँ भी अंग्रेज़ी बोलना दिखावा है.रंगमंच के ज़रिए हिंदी का पैगाम लेकर आए इन हिंदीप्रेमियों को देखकर लोग प्रभावित हुए.
मशहूर रंगकर्मी श्रीश डोभाल का कहना था कि,"इन्हें देखकर प्रेरणा मिलती है कि हम हिंदी में औऱ अच्छा काम करे. रंगमंच वास्तव में हिंदी के प्रसार में मददगार हो सकता है.”

"मैं हिंदी फिल्मों की हीरोइनों की तरह ही बोलना चाहती हूँ”ये कहते हुये ली दिल चाहता है फिल्म का टाइटल गीत गुनगुना उठती हैं.जापानी दल के नाटक में हिंदी फ़िल्मों के गीत भी पेश किए जाते हैं ली को देखकर बरबस ही रूस,अमरीका और अफ्रीका के उन दीवानों की याद आ गई जिन्हें लता और किशोर के गाने मुँहज्ञबानी याद रहते हैं.हिंदी गीतों की इसी लोकप्रियता को देखते हुये ही शायद जापानी दल की नाटक प्रस्तुतियों में भी फ़िल्मी गानों का भी इस्तेमाल किया जाता है .
निर्देशक प्रो.मिज्ञोकामी कहते हैं,"हिंदी भाषा के प्रचार के लिये लोकप्रिय माध्यमों के साथ-साथ लोकप्रिय विषय भी ज़रूरी हैं."
हमें गर्व है हिंदी के इस प्रहरी पर !
पुन: परिकल्पना पर वापस जाएँ
समूचे हिंदी जगत को गर्व है इनपर !
ReplyDeleteसचमुच हिंदी के लिए यह गर्व का विषय है ....बेहतर प्रस्तुति , बधाईयाँ !
ReplyDeletehamen bhi garv hai bhayiyaa....
ReplyDeleteअंग्रेजी से हमें कोई दुश्मनी नहीं..दुश्मनी तब होती है जब ये बाजार की भाषा घर की दहलीज में भी अपने कदम ज़माने की कोशिश करती है..मुझे नफरत होती है उन दोस्तों से जो पहले हिंदी में बात करते थे मगर जब से MBA करना शुरू किया तब से अंग्रेजी में बात करने के लिए रेट रटाये कुछ शब्दों का कचूमर निकलते हैं.एक वर्ड सोचने के लिए बात चित के दोरान अ आ या ...करके सोच सोच के बालते हैं.अरे भैया जब हम हिंदी में बात कर सकते हैं दोनों को आचे से यही भाषा आती है..इसी भाषा में हम अपने इमोशन अच्छे से एक दुश्रे को बता सकते हैं तो वहां अंग्रेजी झड़ने की जरुरत क्या है...मो. पे अंग्रेजी झड़ने वाले अब उन दोस्तों से मैं साफ कह देता हूँ ,अबे बात करनी है तो हिंदी में कर फल्तुं में अटक अटक के अगर अपनी अंग्रेजी झाद्नी है तो फ़ोन रख किसी और के सामने झाड़ना अपनी विद्वता...
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