भारत ऋतुओं का देश है, जहां प्रकृति का वैविध्यपूर्ण सौंदर्य बिखरा पड़ा है। यही कारण है, कि फूलों का देश जापान को छोड़कर आने की दु: खद स्मृति हाइकु काव्य को कभी अक्रांत नहीं कर पाई। वह इस देश को भी  अपने घर की मानिंद महसूस करती रही। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य जगत के समस्त हाइकु प्रेमी और हाइकु सेवी यही शुभेच्छा करते हैं कि हाइकु काव्य को प्रकृति के क्रीड़ांगन में खेलने -  फलने - फूलने का पूरा पूरा अवसर मिलता रहे। डॉ. मिथिलेश दीक्षित जी ने भारत में इस हाइकु काव्य को एक क्रांति की प्रस्तावना के रूप में देखा है और इस काव्य को एक अभियान के माध्यम से गति प्रदान की है। डॉ. मिथिलेश जी ने हाइकु गंगा पटल के माध्यम से नए व पुराने सृजन धर्मियों का एक ऐसा मंच तैयार किया है जो हिन्दी पट्टी में हाइकु काव्य हेतु एक वृहद वातावरण तैयार करने का काम कर रहा है, जो अपने आप में अविस्मरणीय है और स्तुत्य भी।

हाइकु का मूलाधार प्रकृति होने के कारण कुछ विद्वानों ने इसे "प्रकृति काव्य" कहा, किन्तु हाइकु में प्रकृति का पर्यवेक्षण उसके गतिमान रूप पर केंद्रित रहता है। हाइकु कवि जीवन की क्षण - भंगुरता को प्रकृति के गतिमान, निरंतर परिवर्तनशील रूप में देखता है।

हाइगा हाइकु का हीं एक अलग रूप है, जिसमें चित्र को केंद्र में रखकर हाइकु काव्य का सृजन किया जाता है। इस काव्य को सबसे ज्यादा प्रश्रय देने का महत्वपूर्ण कार्य किया है सरस्वती की परम साधिका डॉ. मिथिलेश दीक्षित जी ने। प्रकृति के प्रति अपना आंतरिक सहज लगाव प्रमाणित करते हुए उन्होंने हाईकु गंगा पटल पर हाइगा की कई कार्यशालाओं का आयोजन कर इस काव्य शैली को हिन्दी के पटल पर प्रतिष्ठापित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है, जो उनकी इस काव्य शैली के प्रति आकर्षण को दर्शाता है।  इस पटल से कई दिग्गज व नए सृजन धर्मी जुड़े हैं जो हाइकु जगत के परिदृश्य को बदल कर रखने की पूरी क्षमता रखते हैं। यही इस पटल की बड़ी विशेषता है।

दिनांक 10. 05. 2020 को सुबह आठ बजे हाइकु गंगा पटल पर धरती के सौंदर्य के विविध रूप और प्रकृति के अनुपम सौंदर्य की ऑन लाइन कव्यमय प्रस्तुति से पूरा वातावरण प्रकंपित हो गया। अर्थवान, गुण समृद्ध हाइगा कार्यशाला तृतीय की शुरुआत आकाशवाणी बरेली की निर्देशिका सुश्री मीनू खरे जी के उद्बोधन, सरस्वती वंदना और खूबसूरत हाइगा की बेहतरीन प्रस्तुति से हुई। सबसे सारगर्भित बात तो यह रही कि उनकी सरस्वती बंदना भी कतिपय हाइकु श्रृखंला की मोतियों से सुसज्जित थीं।

भारत एक ऐसा देश है, जहां प्रकृति के विविध रूपों की पूजा होती है। उगते हुए सूर्य के साथ डूबते हुए सूर्य की भी पूजा होती है। इसे छठ पूजा कहा जाता है यह भारत का सबसे बड़ा लोक पर्व भी है, जिसे रुपायित करते हुए मीनू खरे जी ने बहुत ही सारगर्भित हाइगा प्रस्तुत किया है, जैसे "सूर्य को अर्घ्य/आस्था के कलश की/अटूट धार"

डॉ. मधु चतुर्वेदी जी की पंक्तियां "ऊर्जा के तार/प्रकृति समन्वित/शक्ति संचार"  प्रकृति की उपयोगिता और शक्ति समन्वय का एक अनोखा अनुभव है। वहीं प्रकृति के अनिवर्चनीय सौंदर्य को रेखांकित करते हुए लवलेश दत्त जी*कहते हैं कि " यादों के गांव/खेत, नहर, बाग/ठंडी सी छांव।"

यह मेरी भी खुशकिस्मती थी कि इस  हाइगा कार्यशाला में प्रकृति पर आधारित कुछ हाइगा मुझे भी प्रस्तुत करने का सुअवसर प्राप्त हुआ, जिसके लिए मैं मंच की अध्यक्षा के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित करता हूं।

निवेदिता श्री जी की पंक्तियां "बहती नदी/कल कल करती/बदली सदी" और पुष्पा सिंघी जी की पंक्तियां "बिखरी पांखे/सूखती महानदी/ भीगती आंखें" हाईगा के सुखद भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है।

विष्णुकांता के ताजे फूलों की तरह, कुंद सी सुगंधित कुछ बेहतरीन पंक्तियां प्रस्तुत करने में सफल रहीं डॉ. सुरांगमा यादव जी की "विज्ञप्ति लेके/आया है पतझड़/ नई भर्ती की।" , सरस दरवारी जी की पंक्तियां "नन्हा दीपक/डूबते सूरज का/ संवल बने।", अंजु निगम जी की पंक्तियां " उगला धुआं/प्रदूषित है हवा/ मौत का कुआं।" और डॉ सुभाषिनी शर्मा जी की पंक्तियां  "धूप ने खोली/ कोहरे की गिरह/फैला उजाला ।" आदि।

ऐसी बात नहीं है, कि हाइकु या हाइगा की निंदा नहीं हो रही है या इसका विरोध नहीं हो रहा है। खूब हो रहा है। मेरे पास विरोध तथा भर्त्सना के बहुत सारे लिखित परिपत्र है। किन्तु विरोध से कोई सत्य कभी रुक नहीं जाता, बल्कि दुगुने वेग से आगे बढ़ता है। हाइकु या हाइगा का सत्य वैसे हीं एक ओजस्वी, तेजस्वी दुर्निवार वाग्धारा है। इसी वाग्धारा की एक कड़ी है सत्या सिंह जी  कीपंक्तियां "फूलों के झूले/मस्त पवन संग/आसमां छूले।"

इस पटल पर तीन ऐसे रचनाकारों का मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा जिन्होंने अपने कुछ टटके हाइगा चित्रों से हाइकु जगत को श्री वृद्धि किया है। प्रकृति के प्रति अपना आंतरिक सहज लगाव प्रमाणित करते हुए मनोरम छवि चित्र उकेरे है। पहला नाम है कल्पना दुबे जी का जिनकी पंक्तियां "अमृत रस/झरते झर झर/शान्त निर्झर।", डॉ आनंद प्रकाश शाक्य जी का जिनकी पंक्तियां "वन संपदा/ जीवन मूल स्त्रोत/ हो संरक्षित" और इंदिरा किसलय जी जिनकी पंक्तियां "अहा जिंदगी/ चट्टानों से जूझती/ पहाड़ी नदी ।" मन मुग्ध कर गई।

इस पटल पर कुछ रचनाकार हाइकु काव्य की शालीनता व गरिमा बनाए रखने की दिशा में कृत संकल्प दिखे, जिनमें प्रमुखता के साथ  डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' जी के  हाइगा को स्थान दिया जा सकता है। जैसे -"जब बचेंगे/जंगल जलाशय/ बचेंगे हम।" वस्तु एवं शिल्प दोनों दृष्टि से उनके हाइगा प्रस्तुत हुए। इस पटल पर पेंडों से छनकर आती धूप का स्पर्शविंब साफ दिखाई देता है, जो इस कार्यशाला की उपादेयता को प्रदर्शित करता है।

वर्षाअग्रवाल जी की पंक्तियां यहां विशेष रूप से उल्लिखित करना चाहूंगा, जिसमें उन्होंने अपनी पंक्तियों "मलिन नित्य/संजीवनी व्यक्ति/ मनुज कृत्य।" गहरे भाव छोड़ने में सफल रही।

इस अवसर पर डॉ. सुषमा सिंह जी और डॉ सुकेश शर्मा जी के हा इगा को भी काफी पसंद किया गया। डॉ सुषमा सिंह जी ने अपनी पंक्तियों में कहा कि  "नव कोंपले/ बुलाती पंछियों को/कलरव को"  तथा  डॉ सुकेश शर्मा जी अपनी पंक्तियों में कहा कि "वसुंधरा मां/देती शष्य संपदा/आशीष सम।" में प्रकृति के कोमल छवि को स्पर्श किया है।"

प्रकृति मानव की चिर सहचरी है जो ऋतुओं के द्वारा उसका पालन, अनुरंजन और प्रसाधन करती है। परस्पर एकनिष्ठ रहते हुए दोनों अपने अपने क्रिया - कलाप से एक - दूसरे को प्रभावित करते हैं। उनका यह भाव इस पटल पर परिलक्षित होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि साहित्य समाज से पृथक नहीं। इस कार्यशाला में प्रकृति के अद्भुत रूप को आयामित किया गया है कार्यशाला की अध्यक्षा डॉ मिथिलेश दीक्षित जी के द्वारा, जिन्होंने अपनी पंक्तियों क्रमश: "तुलसी चौरा/जलाती दिया - बाती/ मां याद आती।" और "धूप बीनती/ मृदुल फूल पर/बिखरे मोती।" के माध्यम से प्रकृति के कोमल सौंदर्य को रेखांकित किया है।

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है, कि यह कार्यशाला अपने आप में अनुपम व अद्वितीय है। कहा गया है, कि प्रकृति के दृश्य हाइगा की पहचान है और ये कुदरत के नजारों को देखने का झरोखा भी माना जाता है। ऐसे लगता है जैसे अम्बर, तारे, चांद, सूर्य, वृक्ष, फूल, टहनियां, घास, ओस की बूंदें, वर्षा तथा हवाओं ने इस पटल पर कोई जादू भरा राग छेड़ रखा हो। 
प्रस्तुति: रवीन्द्र प्रभात
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