स्मृति शेष (मृत्यु 17 जनवरी )
फिल्मों की दुनिया बड़ी निराली होती है। ग्लैमर, चकाचैंध और शोहरत से भरपूर। नायक-नायिका जब परदे पर किसी किरदार को जीवंत करते हैं तो न जाने कितने लोग उनके साथ अपने को एकाकार कर लेते हैं। पर वक्त के साथ इन किरदारों को निभाने वालों के किरदार भी बदल जाते हैं और कभी-कभी तो वे खुद ही एक पटकथा बन जाते हैं। एक ऐसी पटकथा, जिसमें जितना खुलापन होता है उतनी ही रहस्यात्मकता। इन रहस्यों के बीच ही न जाने कितनी नई पटकथाएँ जन्म लेती हैं और फिर चित्रपटी यादों एक सिलसिला चल पड़ता है।
लगभग सात साल पहले जब सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने फिल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान एवं हिन्दी सिनेमा का नोबल पुरस्कार माने जाने वाले दादा साहब फाल्के पुरस्कार के लिए सुचित्रा सेन के नाम की घोषणा की थी, तो लोगों के दिमाग में कौंध उठा कि कौन है ये अभिनेत्री? चाहे इसे पीढि़यों का अन्तराल कहें या लोगों का भुलक्कड़पन या सरकार द्वारा सुचित्रा सेन को सम्मानित करने में देरी-पर बांग्ला और हिन्दी की सुप्रसिद्ध व कालजयी अभिनेत्री सुचित्रा सेन को एक बार फिर वक्त ने सुर्खियों के घेरे में खड़ा कर दिया था । इसी के साथ यह भी सवाल उठने लगा था कि सांसारिकता से परे प्रभु भक्ति में लीन अपने आध्यात्मिक लोक में मग्न व एकांतावास में जी रहीं तब 75 वर्षीया सुचित्रा सेन क्या इस सम्मान को ग्रहण करने आगे आएँगीं ? वक््त का पहिया अपनी चाल चलता रहा और 23 दिसंबर 2013 को श्वसन तंत्र में संक्रमण की वजह से कोलकाता के एक अस्पताल में भर्ती होने पर सुचित्रा पुनः चर्चा में आईं और अंततः 17 जनवरी 2014 को दिल का दौरा पड़ने से कभी चित्रपट की मशहूर अदाकारा रही 82 वर्षीया सुचित्रा सेन हमेशा के लिए ओझल हो गईं।
सुचित्रा सेन बंगाली सिनेमा की एक ऐसी हस्ती थीं जिन्होंने अपनी अलौकिक सुंदरता और बेहतरीन अभिनय के दम पर लगभग तीन दशकों तक दर्शकों के दिलों पर राज किया। बंगाली सिनेमा की ग्रेटा गर्बो मानी जाने वाली सुचित्रा ने बांग्ला और हिंदी की तमाम चर्चित फिल्मों में यादगार अभिनय किया। उनकी बांग्ला फिल्मों की बात करें तो यह एक लम्बी फेहरिश्त है- साड़े चुयात्तर (1953), ओरा थाके ओधारे (1954), अग्निपरीक्षा (1954), शापमोचन (1955), सबार उपरे (1955), सागरिका (1956), पथे हल देरि (1957), हारानो सुर (1957), इन्द्राणी (1958), राजलक्षी ओ श्रीकान्त (1958),सूर्य तोरण (1958), दीप ज्बेले याइ (1959), सप्तपदी (1961), बिपाशा (1962),चाओया-पाओया, सात-पाके बाँधा (1963), उत्तर फाल्गुनि (1963), हस्पिटल, शिल्पी (1965), गृहदाह (1967), फरियाद, देबी चैधुरानी (1974), दत्ता (1976), प्रणय पाशा (1978), प्रिय बान्धबी (1978)। कानन देवी के बाद बंगाली सिनेमा की कोई अन्य नायिका सुचित्रा की तरह प्रसिद्धि हासिल नहीं कर पाई। श्वेत-श्याम फिल्मों के युग में सुचित्रा सेन के जबर्दस्त अभिनय ने उन्हें दर्शकों के दिलों की रानी बना दिया था। उनकी प्रसिद्धि का आलम यह था कि दुर्गा पूजा के दौरान देवी लक्ष्मी और सरस्वती की प्रतिमाओं के चेहरे सुचित्रा के चेहरे की तरह बनाए जाते थे।
बांग्लादेश के एक स्कूल हेडमास्टर करूणामय दासगुप्ता की पाँचवीं संतान के रूप में 6 अप्रैल 1931 को पाबना में जन्मी सुचित्रा सेन का आरम्भिक नाम रोमादास दासगुप्ता था। सन् 1947 में देबानाथ सेन से शादी कर वह सुचित्रा सेन बनीं। शादी के पाँच वर्ष पश्चात सन् 1952 में सुचित्रा की प्रथम फिल्म बाँग्ला में ‘‘शेष कोषाय’’ बनी, पर कुछेक कारणों से वह प्रदर्शित न हो सकी। प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर, मधुर आवाज व भावप्रवण बोलती हुई हिरनी आँखों वाली इस बंगाली बाला की उसी वर्ष बांग्ला फिल्मों के सदाबहार नायक उत्तम कुमार के साथ प्रदर्शित फिल्म ‘‘साड़े चुयात्तर’’ ने रातों-रात उसे सफलता के शीर्ष पर पहुँचा दिया और उसके बाद सुचित्रा सेन ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इस फिल्म से सुचित्रा सेन और उत्तम कुमार की जोड़ी बांग्ला फिल्मों में उसी तरह अमर हो गयी जैसे हिन्दी फिल्मों के इतिहास में राजकपूर और नरगिस की जोड़ी। बांग्ला फिल्मों के आइकॉन अभिनेता उत्तम कुमार के साथ सुचित्रा की जोड़ी सुपरहिट रही। दोनों ने करीब 50 फिल्मों में एक साथ काम किया था। सुचित्रा सेन और उत्तम कुमार ने एक फिल्म में ऑथेलो को भी बांग्ला में परदे पर उतारा। इस फिल्म का चलना किसी मानवीय चमत्कार की तरह था।
बांग्ला फिल्मों के अलावा सुचित्रा सेन ने हिन्दी फिल्मों में भी बेजोड़ अभिनय किया। 1955 में प्रदर्शित फिल्म देवदास में वह दिलीप कुमार की बचपन की साथी पार्वती (पारो) बनीं एवं इस भूमिका में बेजोड़ अभिनय के लिए उन्हें फिल्म फेयर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार भी मिला। यह उनकी पहली हिंदी फिल्म थी। उनके अभिनय से अभिभूत दिलीप कुमार ने उनकी प्रशंसा करते हुये कहा था कि उन्होंने पहली बार किसी एक महिला में अद्भुत सौन्दर्य और बुद्धि दोनों को एक साथ महसूस किया है। सुचित्रा की हिन्दी में दूसरी फिल्म ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में बनी मुसाफिर (1957) है। इसके बाद चम्पाकली (1957) फिल्म में भारत भूषण के साथ सुचित्रा ने काम किया। देव आनंद के साथ सुचित्रा की दो फिल्में हैं- बम्बई का बाबू (1960) और सरहद (1960)। फिल्म आँधी (1975) में संजीव कुमार के साथ उनकी जोड़ी लाजवाब रही और हिन्दी दर्शकों के एक बड़े समूह ने पहली बार सुचित्रा के सौन्दर्य और अभिनय प्रतिभा को नजदीक से देखा, जाना और समझा। सुचित्रा की फिल्म अभिनीत ‘आंँधी’ अपने समय में काफी चर्चित रही थी। ऐसा कहा जाता है कि इसमें सुचित्रा सेन इंदिरा गांँधी के जीवन पर गढ़ी गयी एक राजनीतिज्ञ आरती देवी की भूमिका में थीं। मशहूर गीतकार गुलजार ने फिल्म आंँधी के मुख्य किरदार को इंदिरा गांधी के साथ-साथ पहली लोकसभा की सबसे युवा सांसद तारकेश्वरी सिन्हा से भी प्रेरित बताया था। आँधी और सरहद के बीच फिल्मकार असित सेन की हिन्दी फिल्म ’ममता’ (1966) में सुचित्रा ने माँ और बेटी के दोहरे किरदार को निभाते हुए अपने अभिनय का लोहा मनवाया। उनकी चर्चित बांग्ला फिल्म ’उत्तर फाल्गुनि’ (1963) ही हिन्दी में पुनः ’ममता’ नाम से निर्मित हुई। यह दरअसल प्यार के खोने और जिंदगी के दगा दे जाने की अविस्मरणीय कहानी है। इस फिल्म के दो गाने अभी भी लोगों की जुबां पर आ जाते हैं। इनमें एक गाना लता मंगेशकर का गाया हुआ था- रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से प्यारों की तरहध् बैठे हैं उन्हीं की महफिल में हम आज गुनहगारों की तरह, और दूसरा हेमंत कुमार का गाया अमर गीत- छुपा लो ये दिल में प्यार मेरा।
सुचित्रा सेन प्रथम भारतीय अभिनेत्री हैं, जिन्हें किसी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के सम्मान से नवाजा गया था। 1963 में मास्को में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में बांग्ला फिल्म ‘साता पाके बाँधा’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार प्राप्त हुआ। निश्चिततः आज के दौर में जब तमाम अभिनेत्रियाँ विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में सम्मानित होने पर गौरवान्वित महसूस करने लगी हैं, उसकी नींव सुचित्रा सेन ने ही डाली थी। सुचित्रा को 72वें पद्मश्री अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था। बेहद आत्मविश्वासी, दृढ़निश्चयी, चाल-ढाल में आभिजात्य एवम् ज्यादा बोलने से परहेज करने वाली सुचित्रा सेन ने ग्लैमर और शोहरत के शीर्ष पर पहुँचकर अचानक 1978 में प्रदर्शित ‘प्रणय पाशा’ और ‘प्रिय बाँधोबी’ के बाद अभिनय की दुनिया के साथ-साथ सामाजिक जीवन को भी अलविदा कह दिया। उनकी तुलना अक्सर हॉलीवुड की ग्रेटा गार्बो से की जाती थी जिन्होंने लोगों से मिलना जुलना छोड़ दिया था। सुचित्रा सेन दक्षिणी कोलकाता में अपने घर में एकांत जीवन जी रही थीं।
सुचित्रा सेन ने फिल्मों व सामजिक जीवन से कटने के बाद मशहूर अंतर्राष्ट्रीय अभिनेत्री ग्रेटा गार्बो की तरह रहस्य का पर्दा ओढ़ लिया। ग्रेटा गार्बो के बारे में कहा जाता है कि अपने शुरूआती दिनों के बाद उन्होंने कभी कोई साक्षात्कार नहीं दिया, प्रशंसकों से नहीं मिलीं एवम् न ही अपनी फिल्मों के प्रीमियर पर गईं। पर 1941 में अपनी इमेज के विपरीत बनी रोमाण्टिक कामेडी फिल्म ‘टू फेस्ड वूमेन’ की असफलता पश्चात अचानक उन्होंने फिल्मों से सन्यास ले लिया और 1990 में अपनी मृत्यु होने तक उन्होंने इस एकांतावास को नहीं तोड़ा। वे एक ऐसी आत्ममुग्ध अभिनेत्री थीं जिनके लिए अपनी असफलता स्वीकारना सम्भव नहीं था। सुचित्रा सेन के बारे में भी यही कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि अपने साथी उत्तम कुमार की मृत्यु पश्चात वे अंदर से काफी टूट चुकी थीं एवं सफलता के चरम पर विराजमान होने के बावजूद ‘प्रणय पाशा’ की असफलता पश्चात कुछ फिल्म निर्माताओं के कटाक्ष से उन्होंने अपने को फिल्मी व सामजिक जीवन से ही पूरी तरह काट लिया और रामकृष्ण मिशन की अनुयायी रूप में कोलकाता से सटे बेलूर मठ में एकान्तावास का जीवन बिताने लगीं।
यह भी एक अजीब संयोग है कि इस महानायिका ने जब एकांतावास की चादर ओढ़ी तो फिर अंत तक उसे उठने नहीं दिया। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पिछले 35 साल से एकांत जीवन जी रहीं अभिनेत्री सुचित्रा सेन से भेंट करने वाली एकमात्र सार्वजनिक हस्ती रही हैं। यहाँ तक कि उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार मौत के बाद भी उनका चेहरा दुनिया के सामने नहीं आया क्योंकि उनके शव को ले जाने वाला वाहन उजले फूलों से ढंका था और काले रंग का शीशा लगा होने के कारण प्रशंसकों को उनकी झलक भी ठीक से नहीं मिल सकी। चित्रपट के साथ-साथ लोगों कि निगाहों से भी भले ही सुचित्रा सेन ओझल हो गईं, पर उनका अभिनय का खून अभी भी दौड़ रहा है, तभी तो बेटी मुनमुन सेन के बाद अब नतिनी रिया सेन व राइमा सेन के रूप में उनकी तीसरी पीढ़ी अपनी अदाकारी के जलवे दिखा रही है।
()कृष्ण कुमार यादव
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